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"KUSUM".....A POEM FOR MY MOM

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  "कुसुम" निम की पेड़ का तुम एक कुसुम सुलगती धूप की तुम नर्म छाँव हर रूप में औषध,  मरहम ममता की एक बेटी , एक बहन , एक माँ । इस पेड़ में आए फूल कई सुमन भी खिले हज़ार पर कुसुम थी एक,  उसकी महक निराली अनोखी , अलग ही यार । अरसा हुआ खिली,  जा सागर मे मिली बनी   पौध गुज़रे जो साल अब वृक्ष है तू  ,  दृढ़ दृश्य है तू अम्बर तले घना विशाल । कई पंछी आके चले गए   तेरी डाली से लिपट के पले   बड़े   सबका तू बनी बसेरा माँ   जीवन में किया सवेरा माँ   मुड़के  जो ना देखा तुझे अगर   भूला   कोई खग वापसी की डगर   रखी शर्त   ना बैरन हुए पैगाम कहीं   लगता है छाया का दाम ? कई आंधी भी आके चली गई   बादल ने कहर भी ढाए   हवा ने पूछा ,  " तू क्यूँ नहीं गिरती,  चहु तरफ है घनेरे साए? "  कुसुम बोली ,  हस के डोली   अरे,  र