"KUSUM".....A POEM FOR MY MOM
सुलगती धूप की तुम नर्म छाँव
हर रूप में औषध, मरहम ममता की
एक बेटी, एक बहन, एक माँ ।
इस पेड़ में आए फूल कई
सुमन भी खिले हज़ार
पर कुसुम थी एक, उसकी महक निराली
अनोखी, अलग ही यार ।
अरसा हुआ खिली, जा सागर मे मिली
बनी पौध गुज़रे जो साल
अब वृक्ष है तू , दृढ़ दृश्य है तू
अम्बर तले घना विशाल ।
कई पंछी आके चले गए
तेरी डाली से लिपट के पले बड़े
सबका तू बनी बसेरा माँ
जीवन में किया सवेरा माँ
मुड़के जो ना देखा तुझे अगर
भूला कोई खग वापसी की डगर
रखी शर्त ना बैरन हुए पैगाम
कहीं लगता है छाया का दाम?
कई आंधी भी आके चली गई
बादल ने कहर भी ढाए
हवा ने पूछा, "तू क्यूँ नहीं गिरती,
चहु तरफ है घनेरे साए?"
कुसुम बोली, हस के डोली
अरे, रुत तू तो है आनी - जानी
झोंको से क्यूँ डरे जड़े मेरी
जब संघर्ष ने हो सींचा पानी ।
सुन,
हर डाल में मेरी प्रीत है
फल प्रियल है, कली ईशान
हर पल्लव में भरा संगीत है
और प्रगति मेरी पहचान ।
टूटूंगी पर झुकूंगी नहीं
तूफानों से कह दो जा
जो समय खुद घटे -बड़े हर दिन
वो वक़्त क्या हरा सका ?
आज कुसुम हूँ, कल हूँगी एक बीज
अंकुर, फिर दरख़्त महान
लौटूंगी चमन में बनके बहार
यह रहा मेरा वादा ।।
- प्रीति सिंह
- प्रीति सिंह
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