WOH BACHPAN KI GALI
वो बचपन की गली
वो ईंटों से बिछा हुआ लाल रस्ता
एक साइकल पे लदा कैन्वस का बस्ता
अंगीठियों से उठता कोयले का धुआँ
पीपल के नीचे वो छोटा सा कुआँ
रुई की धुनाई की वो टन-टन आवाज़
रेडियो पर छिड़ता कोई फ़िल्मी साज़
वो हर एक लम्हा, आज भी
आबाद है
वो बचपन की गली, मुझे अब
भी याद है II
वो छतों से उड़तीं पतंगें हज़ार
वो खिलोनों के ठेले, वो चलते
बाज़ार
वो लट्टू, वो कंचे, वो गिल्ली और डंडा
वो मक्खन सफ़ेद, डबल
रोटी और अंडा
वो चिट्ठी के डिब्बे और डाकिये की घंटी
वो पड़ोसी का बेटा और पतली सी संटी
वो लड़का, अफ़सोस, आज भी बर्बाद है
वो बचपन की गली, मुझे अब
भी याद है II
पुराने कपड़ों से होता बर्तन का व्यापार
वो मूँगदाल की बड़ियाँ, वो
पापड़ अचार
एक काला सा फ़ोन, जो सबका
था यार
वो ट्रंक कौल के दिन और बुलावे हज़ार
हम लोग, रामायण, नुक्कड, चित्रहार
जब चैनल था एक, एकजुट
परिवार
वो दिन वापस आएँ, बस यही
फ़रियाद है
वो बचपन की गली, मुझे अब
भी याद है II
चारपाइयों पे रोज़ लगती मच्छरदानी
उन सूती महलों में नानी की कहानी
झिंगुर की लोरी पे जब आते थे झोंके
और मुर्ग़े की बाँग पे उठते थे सो के
मिट्टी की सुराही का सौंधा सा जल
अब कैसे भरूँ एक बोतल मे कल
उस कल की जितनी भी, हो कम
दाद है
वो बचपन की गली, मुझे अब
भी याद है II
- प्रीति सिंह
- प्रीति सिंह
Comments
बहुत बहुत ख़ूबसूरत प्रीति जी
कितनी ऐसी चीजों की याद दिला दी जो कई दशकों से ज़हन में नहीं आयी थी!