WOH KHAALI PANNA



वो ख़ाली पन्ना 

बहुत अरसे से मैं इसे टाल रही थी
ये मुलाक़ात इतनी आसान नहीं 
जैसे किसी अजनबी से रूबरू होना 
"क्या बोलूँ, क्या कहूँ, क्या सुनूँ"
और इस बार कौन सी कहानी बुनु?
वो कश्मकश, वो बेचैनी
वो पसीने से भरा माथा 
जैसे किसी कुश्ती की शुरुआत हो 
इस बार, ना जाने किसकी जीत 
और ना जाने किसकी मात हो 
ये प्रतिद्वंदी आख़िर काफ़ी जाना पहचाना था 
और हम कई बार ये मुक़ाबला लड़ चुके थे 
फिर भी ना जाने क्यूँ, ये ख़ौफ़ कभी जाता नहीं 
ख़ौफ़ उस ख़ाली पन्ने का 
उसकी दबी हँसी 
उसकी सफ़ेदी की चौंध 
उसकी असीम गहराई 
एक काला कुआँ 
एक तलहीन खाई 
ना जाने कितनी कहानियाँ उसके सीने में दफ़्न हैं 
और, हर बार की तरह, मुझे आज फिर 
उस ख़ाली पन्ने को खोदना है 
उसके अभिमानी कोरेपन को गोदना है
सिर्फ़, अपनी एक छोटी कलम के बल पर II 

                                 - प्रीति सिंह 

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