DAAYARA
दायरा-ए-नज़र को ना समझ अपनी मंज़िल
फ़ासलें और भी हैं उस मुक़ाम के पार
हर मक़सद हो फ़तह, हर इरादा हासिल
तो ही चूमे जीत, कदम बार-बार
दायरा-ए-नज़र को ना समझ अपनी मंज़िल
फ़ासलें और भी हैं उस मुक़ाम के पार
हर मंज़र नज़र आए, ये ज़रूरी तो नहीं दोस्त
खुली आँखों से तो नज़र, ख़ुदा भी नहीं आता यार
दायरा-ए-नज़र को ना समझ अपनी मंज़िल....
- प्रीति सिंह
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